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महि॒ राधो॑ वि॒श्वज॑न्यं॒ दधा॑नान्भ॒रद्वा॑जान्त्सार्ञ्ज॒यो अ॒भ्य॑यष्ट ॥२५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mahi rādho viśvajanyaṁ dadhānān bharadvājān sārñjayo abhy ayaṣṭa ||

पद पाठ

महि॑। राधः॑। वि॒श्वऽज॑न्यम्। दधा॑नान्। भ॒रत्ऽवा॑जान्। स॒र्ञ्ज॒यः। अ॒भि। अ॒य॒ष्ट॒ ॥२५॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:25 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:34» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:25


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (सार्ञ्जयः) अनेक प्रकार के न्याययुक्त व्यवहारों को बनानेवाले का सन्तान (महि) बड़े (विश्वजन्यम्) संसार से वा सम्पूर्ण से उत्पन्न होने योग्य वा सम्पूर्ण सुख को उत्पन्न करनेवाले (राधः) धन को (दधानान्) धारण करनेवाले (भरद्वाजान्) अन्न आदि के धारणकर्त्ताओं के (अभि, अयष्ट) सन्मुख जावे, मेघावी वह राजा चक्रवर्ती होवे ॥२५॥
भावार्थभाषाः - जो ब्रह्मचर्य्य से शरीर और आत्मा को बलिष्ठ कर और सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य को बढ़ाय के उत्तम पुरुषों को ग्रहण करता है, वही राजा राज्य के बढ़ाने के योग्य होवे ॥२५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

य सार्ञ्जयो महि विश्वजन्यं राधो दधानान् भरद्वाजानभ्यष्ट स राजा सम्राट् स्यात् ॥२५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (महि) महत् (राधः) धनम् (विश्वजन्यम्) विश्वाञ्जनयितुं योग्यं विश्वसुखजनकं वा (दधानान्) धारकान् (भरद्वाजान्) ये वाजानन्नादीन् भरन्ति तान् (सार्ञ्जयः) यो विविधान्न्याययुक्तान् व्यवहारान् सृजति तस्यापत्यम् (अभि) आभिमुख्ये (अयष्ट) अभिसङ्गच्छेत ॥२५॥
भावार्थभाषाः - यो ब्रह्मचर्य्येण शरीरात्मानौ बलिष्ठौ कृत्वा सकलैश्वर्य्यमुन्नीयोत्तमान् पुरुषान् सङ्गृह्णाति स एव राजा राज्यमुन्नेतुमर्हेत् ॥२५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो ब्रह्मचर्याने शरीर, आत्मा बलवान करून संपूर्ण ऐश्वर्य वाढवितो व उत्तम पुरुषांचा स्वीकार करतो तोच राजा राज्य वाढविण्यायोग्य असतो. ॥ २५ ॥